शहर से दूर, गाँव से बाहर, महलनुमा हवेली यादवेन्द्र की है। यह सिर्फ भूगौलिक रूप से ही गाँव व शहर से अलग नहीं है, बल्कि सामाजिक रूप से भी यह गाँव और शहर से कटी हुई है। क्यों कटी हुई है ? शायद इसका कारण यही है कि समाज उनके लिए है, जो समाज के लिए हैं। जो समाज के विषय में नहीं सोचते, समाज उनके विषय में क्योंकर सोचे, लेकिन यादवेन्द्र को इसकी कोई चिंता नहीं। लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं, इसकी उसे परवाह नहीं। वह तो अपनी धुन में मस्त है। वह अपने ढंग से कमाता है और अपने ढंग से जीता है। लोगों को उसके ढंग से हानि होती है या लाभ यह सोचना उसका काम नहीं।
भले ही वह समाज से कटा हुआ है, फिर भी समाज से उसका एक नाता बचा हुआ है। यह नाता भावनाओं का न होकर व्यवसाय का है। सिर्फ़ व्यवसाय की दृष्टि से कुछ लोगों से मिलता है और अपने आदमियों के द्वारा समाज से धनार्जन करता है। वैसे शौक तो उसे राजनीति का भी है, उस राजनीति का जिसमें वही लोग सफल होते हैं, जो जनता को अपना भाग्य निर्माता समझकर उनके दुख-दर्द को बँटाते हैं। समाज से नफ़रत करने वाला सफल राजनेता नहीं हो सकता, लेकिन यह शर्त एक तरफ़ा है, क्योंकि दूसरी तरफ़ है धन-दौलत, जो इस शर्त को झुठला देती है। धन तो उन लोगों को भी सफल राजनीतिज्ञ बना देता है, जो समाज को, समाज के लोगों को नफरत भरी नज़रों से या फिर हेय दृष्टि से देखते हैं, लेकिन दिखावा नहीं करते, यानी बगुले भगत बने रहते हैं। यादवेन्द्र भी इसी धन की बदौलत राजनीति के कपट खेल को खेलनेवाला खिलाड़ी बना हुआ है। अब तो धन-दौलत - राजनीति - धन-दौलत का चक्र सा चल पड़ा है उसकी जिन्दगी में, यानी राजनीति से धन आ रहा है और धन से राजनीति में पकड़ मज़बूत होती जा रही है। इसी चक्र में उसने अपनी भव्य हवेली का निर्माण किया है। उसकी हवेली को क्षेत्र बहुत विशाल है। चारदीवारी के ऊपर कंटीली तारें लगी हुई हैं और चारों ओर की दीवारें सफेद लाल फूलों वाली बेलों से लदी हुई हैं। हवेली का मुख्य द्वार काफी विशाल है। द्वार पर संगमरमर पत्थर लगा हुआ है और उस पर सुनहरी शब्दों में 'सिद्धू निवास' लिखा हुआ है। हवेली से मुख्य द्वार तक कोई पचास गज के लगभग सड़क है। सड़क के दोनों तरफ फलदार पेड़ हैं। बीच-बीच मे खंभे भी लगे हुए हैं, जिन पर ट्यूब लाइट्स लगी हैं। सड़क के बाएँ और पार्क है। यह पार्क हवेली के सामने भाग के आगे तो है ही, साथ में बाएँ भाग के आगे भी है और पिछली दीवार तक फैला हुआ है। यह पार्क बड़े परिश्रम से बनाया गया लगता है, इसमें इतने फूल हैं, जितने की आकाश में सितारे। हरियाली भरे इस पार्क में ये रंग-बिरंगे फूल दिलकश नजारा पेश करते हैं । 'L' आकार के इस पार्क के दोनों आयताकार भागों के बीचो-बीच एक-एक गोलाकार क्षेत्र है, जिसके केन्द्र में लाल, सफेद, काले, गुलाबी रंगों के फूलों वाले पौधे हैं। उस वृताकार घास के क्षेत्र की परिधि पर भी गेंदा, चमेली, गुलदाऊदी आदि के फूल हैं। हवेली के पीछे और दाएँ भाग में गलियारा छोड़कर दीवार है। हवेली के सामने और सड़क के दाएँ ओर के आयताकार के क्षेत्र में भी घास लगी हुई है। इस क्षेत्र के किनारे पर, जो सामने वाली बाहरी दीवार के पास है, एक आम का पेड़ लगा हुआ है। अभी तो यह पूरा विकसित नहीं हुआ, लेकिन इसके विकसित होने पर इसकी छाया और फल दोनों के मिलने की संभावना है। हवेली दो मंजिली है और इसके कमरों के जो द्वार बाहर की तरफ खुलते हैं, वे या तो मुख्य द्वार की ओर हैं या फिर सड़क के बायीं ओर पार्क की तरफ खुलते है। दाएँ और पीछे की ओर कोई द्वार नहीं। दायीं तरफ तो कोई खिड़की भी नहीं, क्योंकि दायीं तरफ़ के भाग को हवेली से बिल्कुल अलग रखा गया है। शेष तीन तरफ भिन्न-भिन्न कमरों की खिड़कियाँ है। हवेली के अन्दर बीच में काफी बड़ा हाल है, जिसमें सीढियाँ हैं, जिसके सहारे ऊपरी मंजिल के कमरों में जाया जा सकता है।
हवेली के दायीं तरफ काफी बड़े आकार का साधारण-सा घर है। इस घर में हवेली में काम करने वाले नौकर-चाकर और पशुओं की व्यवस्था है। हवेली के साथ वाली दीवार के पास नौकरों के कमरे हैं और उनके सामने की ओर पशुओं के लिए खुला हाल है। हाल के साथ पशुओं के चारे के लिए कमरा है। कमरे के साथ एक बहुत बड़ा गोदाम है, दो भागों में बंटा हुआ है इसके एक भाग में फसल, नरमा कपास आदि रखी जाती है, तो दूसरी तरफ वह विशेष सामग्री है, जिसकी बदौलत यादवेन्द्र इस मुकाम तक पहुँचा है। दायीं तरफ का यह भाग हवेली जितना खूबसूरत नहीं है। इसमें न तो कहीं फूल हैं और न ही कहीं फलदार पेड़। हाँ नीम के दो एक पेड़ अवश्य हैं। इस घर के बाहर की तरफ कीकर आदि के पेड़ भी हैं। इसका मुख्य द्वार हवेली के मुख्य द्वार के समांतर है, लेकिन थोड़ा पीछे हटकर है। हवेली की दायीं दीवार में भी एक छोटा-सा दरवाजा है, जिसके माध्यम से इधर-उधर आया जा सकता है, मगर यह लगभग बंद ही रहता है। नौकर या तो दूध पकड़ाने के समय ही इसे खोलकर आते हैं या फिर किसी विशेष समय पर मालिक उधर चले जाते हैं।
यादवेन्द्र को इस हवेली में आए अभी कुछ ही समय बीता है। उसके साथ उसके माता-पिता भी हैं। माँ घर को संभालने वाली साधारण-सी गृहिणी हैं, लेकिन पिता जी उस प्रकार के रौबदार व्यक्ति हैं, जैसे कि अंग्रेजों के जमाने में जागीरदार हुआ करते थे। पिता का नाम है - प्रतापसिंह। हवेली आने से पहले गाँव में रहकर खेती-बाडी करते थे और पैसे के दम पर पूरे गाँव में अपना प्रताप फैलाना चाहते थे। गाँव के कुछ लोग उनकी आयु देखकर, कुछ धन देखकर और कुछ शिष्टाचार के नाते उनका सम्मान करते थे और यही सम्मान उनके अहं का कारण था। वे सब कुछ पैसे के दम से हासिल करने में विश्वास रखते थे, इसीलिए उन्हें गलतफहमी हो गई थी कि वे पैसे के बल पर ही बेटे के लिए शिक्षा खरीद लाएँगे।
क्रमशः